1 - उत्तराखण्ड में चकबन्दी नीयत, नीति तथा नियति


                                                               डा॰ बी॰ पी॰ नौटियाल
                                                               पूर्व महाप्रबन्धक-नाबार्ड तथा
                                                               पूर्व निदेषक- उद्यान एवं फल प्रसंस्करण

पृथक उत्तराखण्ड राज्य की मार्ग एक पर्वतीय राज्य के रूप में बीसवीं षताब्दीे में पचास के दषक से ही उठने लगी थी। यह कोई राजनैतिक महत्वाकांक्षा की मांग नही थी। क्योंकि तब हमारा देष आजाद ही हुआ था जनमानस के प्रतिनिधि राजनीति से कम समाजसेवा एवम् विकास से अधिक जुड़े थे। तब के समाजसेवी ही जनप्रतिनिधि होते थे उनके आदर्ष और मूल्य वर्तमान के आदर्षों और मूल्यों से बिल्कुल अलग थे। आज से 60 वर्श पूर्व तत्कालीन उत्तर प्रदेष के पर्वतीय जिले भी कम थे और उनकी आबादी भी कम थीं। तब षिक्षा, स्वास्थ्य की सुविधायें भी कम थी। सड़क मोटर मार्गों का तो कहना ही क्या तब किलोमीटर नही मीलों पैदल चलना होता था, छोटे-छोटे बच्चे मीलों पैदल चलकर स्कूलों में आया जाया करते थे।

अपनी-अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार वे देहरादून, दिल्ली, इलाहाबाद, बनारस, कलकत्ता, लखनऊ, बम्बई, अमृतसर, कराची, लाहौर तक पढ़ने जाये करते थे, कुछ पढ़ाई के साथ ही घरों में तथा कलकारखानों में काम भी किया करते थे। कुछ फौज तथा पुलिस में भर्ती हो जाते थे और अपने-अपने समय पर अपने घर गांव आ जाया करते थे। घर आने पर छुटियों में अपने श्रम और आमदनी से खेत और मकान बनाया करते थे। कुछ अपनी बचत से गाय, भैंस, भेड,़ बकरी, घोड़े खच्चर बांघ दिया करते थे जो उनकी आमदनी और आजीविका के साधन होते थे। तब हर गांव का हर परिवार स्वाबलंबी जीवन जीता था, तब गांव का आदमी गरीब जरूर दिखता था परन्तु गरीब नहीं था, तब गांव का आदमी कमजोर जरूर दिखता था परन्तु बीमार नहीं था।

आज उत्तराखण्ड के गांवों में जाते हैं तो दो तस्वीरे दिखती हैं। कहीं पुराने मकान खण्डहरों में बदल गये है तो कहीं नये भव्य मकान भी बन चुके हैंै। परन्तु उन मकानों में या तो रहने वाले लोग नहीं है अगर हैं तों बूढ़े और बीमार माँ -बाप ,कुछ महिलाये और बच्चे। न गाय, बैंल, भैंस और न भेड़ बकरी। सड़के बन गई हैं, बिजली आ गई है घर-घर में नलों से पानी आ गया है, बाथरूम (टाॅयलैट) बन गये हैं। स्कूल खुल चुके हैं परन्तु उनका उपयोग करने वाले कहाँ हंै? कुछ लोग परिवार अपनी-अपनी सामथ्र्य के अनुसार नजदीक के कस्वे में, (जिसे हम ग्रोथ सेन्टर भी कहते है)। ब्लाक मुख्यालय जिला मुख्यालय, छोटे, बड़े नगरों और प्रदेष की राजधानी देहरादून से होते हुये, देष की राजधानी दिल्ली और आर्थिक राजधानी मुम्बई से होते हुये विदेष तक बिखर गये और बस गये। कुल मिला कर गांव के गांव खाली हो चुके है और गांव की आबादी, कस्बों, नगरों, और महानगरों में पसर गई है। पिछले दषको की जनगणना इस बात के प्रमाण हैं कि ग्रामीण जनसंख्या में तीव्र गति से कमी आई है अर्थात ग्रामीणों का बहुत तेजी से पलायन हुआ है और गांव वीरान तथा खेत बंजर हुये हैं।कस्बे, नगरों में बदल गये है और नगर महानगर बनने की दौड़ में है। पृथक उत्तराखण्ड को उद्देष्य पलायन रोकना था, रोजगार, पैदा करना था, खेतों में उत्पादन बढ़ाना था और जल, जंगल, जनगण के साथ एक सन्तुलन बनाना था। परन्तु उत्तराखण्ड राज्य प्राप्ति के तमाम उद्देष्य और विकास का मानदण्ड ”प्रतिव्यक्ति आय“रू 50,000/प्रति वर्श तक सिमट कर रह गया। पिछले 60 वर्शों में हमारे आदर्ष राजनीति राजनीति के बजाय ”कूट नीति“ में तब्दील हो गये और जीवन के मूल्य नकदी, जमीन, मोटर, मकान, टी.वी. मोबाइन और दुकान (ठेकेदारी) में बदल गये। पृथक उत्तराखण्ड राज्य की मांग अवष्य ही उत्तराखण्ड के निवासियों की थी जो अपनी तुलना मैदानी जिलों से करते थे- जिसमें पहाड़ जैसी मुसीबतें नही थी। आंकड़ों के जाल में न फंसे तो बेहतर होगा। सीधी सपाट परिभाशा थी- मैदान में सड़के, बिजली, पानी, अस्पताल, स्कूल होते है। पानी के लिए मीलों नही चलना होता है घास लकडी भी खेत खलिहानों में मिल जाती है, नहीं तो स्टोव, गैस, हीटर जलते हंै। बच्चे नजदीक के स्कूल के अंग्रेजी सीख लेेते है बीमारी का इलाज नजदीक के अस्पताल में हो जाता है गांव से षहर/कस्बे नजदीक होते है एक गांव से दूसरे गांव जाने को चढ़ाई नही चढ़नी होती है। बाघ, भालू, सुअर, बन्दर का खतरा नहीं है मैदानों में न नगरों में। नौकरी नही है तब भी दिहाड़ी मजदूरी करके दिन कट जाता है। षहरो में बड़े-बड़े होटल, सिनेमाघर, कोठिया कलकारखाने है। कम पढ़े लिखे, अनपढ़ों के लिये अपने अपने हिसाब का काम मिल ही जाता है। यही सोच कर पिछले 200 वर्शो से ‘पहाड़ी’ मैदानों की ओर सरकता गया और अब तो सरकते सरकते मैदान में ही पसर गया।

पलायन बनाम बाढ़- पहाड़ के 10 जिलों से पहाड़वासियों के सरकने की गति को पृथक उत्तराखण्ड राज्य बनने की वाद और भी ज्यादा हो गई जैसे बरसात में नदियों की बाढ़। यही बाढ़ जहा मैदानो को उर्वरा बनाती थी वही खेत खलिहानों को भी अपने आगोष में लेकर निगल जाती थी। बरसात नदियों के पानी के बाढ़ की विभीशिका पूरा देष झेलता है और नदी नालों के किनारे ‘तटबन्ध’ और नदी के श्रोतों पर जलागम ‘वाटरषेेड’ परियोजनाओं के सिद्धान्त के अनुसार ‘चकडाम’ बनाते रहते हैं। यह सिलसिला जारी है नदियों से कुल मिलाकर आदमी का और पानी का मैदानो में रिसना तेजी से बदस्तूर जारी हैं क्यांेकि पहाड़ो की नंगी धरती पर न तो पानी को रोकने की क्षमता है और न आदमी को रोकने की। इसी लिये हर किसी राजनेता समाज सेवी, विचारक, नौकाषाह, साहित्यकार की जुवान पर एक ही मुहावरा है कि पहाड़ की जवानी और पहाड़ का पानी ‘पहाड़’ के काम नही आ रहा, इसे रोको परन्तु कमबख्त जवानी और पानी रूकती ही नहीं। ‘पानी’ रोकने की तकनीक तो “तटबन्धांे” और ”चकडाम“ की योजनाओं से सरकार ने सीख ली परन्तु जवानी को रोकने की तकनीक क्या होगी यह न तो पैतृक उत्तरप्रदेष सरकार ढंूढ़ पाई न वर्तमान उत्तराखण्ड सरकार और न ही भारत सरकार कारण कोई नही ढूंड पाया क्योंकि कारण ढूंडने के लिये नीयत चाहिये, तभी तो नीति बनेगी और उसी नीति की वैसी ही नियति (परिणाम) होगी।

इस समस्या को गलतफहमी से सभी सरकारी मातृ पहाड़ की समस्या को समझ बैठे खास तौर पर उत्तराखण्ड में जहां विकास के मानदण्डों में उत्तराखण्ड को अब्बल दर्जे का राज्य घोशित किया जाता रहा। अगर तथाकथित विकास दर, प्रतिव्यक्ति आय और सकल घरेलू उत्पाद में पिछले 11 वर्शों में ग्राफ निरन्तर ऊपर चढ़ा है तो कृशि उत्पादकता क्यों कम हो रही है ?बंजर खेत क्यों बढ़ रहे है ?और पर्वतीय गांव से पलायन की रफतार क्यों बढ़ रही है ?बहुत सीधा सा उत्तर है कि पहाड़ों में जीवन यापन कठिन है आमदनी कम है और तथाकथित मैदान और षहर (उच्चवर्ग की) मानसिकता के कारण पहाड़वासियों में एक हीन भावना है वे अपने जीवन का उद्देष्य मैदान या नगर में एक मकान बनाने को लेकर चले है चाहे वह किसी गली या नाले के किनारे ही क्यों न हो। यहां एक बार फिर दुहराना होगा कि पहाड़ों में पानी और जवानी (आदमी) का बहुत करीबी वैज्ञानिक रिष्ता है। आज से वर्शों पहले पहाड़ों में घने जंगल हुआ करते थें। वन भूमि का क्षेत्रफल और घनत्व बहुत था तो वर्शा अधिक होने से उनमें जलग्रहण की क्षमता भी अधिक थी और पानी धीरे-धीरे रिसकर जमीन के अंदर से नदी नालों में आता था। तब वह पानी धरती को छीनकर मलवे के रूप में बाढ़ नहीं लाता था। ऐसे ही वर्शाें पूर्व (आजादी से पहले भी) पहाड़वासियों के पास इतनी कृशि योग्य भूमि थी जो अपने जीवन यापन के लिये पर्याप्त अनाज पैदा करते और इतनी वन भूमि थी कि उन पर गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी पल जाया करती थी और अन्य जरूरतों की पूर्ति हो जाया करती थी। तब पलायन की दर इतनी अधिक नहीं थी कि आदमी की बाढ़ गांव से कस्बे की ओर आ पाती या पहाड़ से मैदान की तरफ बढ़ती। तब पलायन का स्वरूप ऐसा भी नहीं था। तब पलायन पक्षियों की तरह था जो षाम को अपने घोंसलो/घरों में आजाया करते थे।

परन्तु अब उन्होंने घोंसला ही दूसरी जगह बना लिया है। परन्तु निरन्तर बढ़ती जनसंख्या से जहाँ जंगलो का सफाया होता रहा और जल ग्रहण क्षमता घटती गई वही कृशि भूमि या खेतों का बँटवारा होता गया और जलग्रहण की ही तरह गांव में जन ग्रहण क्षमता भी कम होती चली गई। 100 वर्श पूर्व एक परिवार के पास 100 नाली (2 हैक्टेयर) भूमि थी, अब उसी परिवार की चैथी पीढ़ी के पास मात्र 25 नाली रह गई वह भी टुकड़ो-टुकड़ो में। आंकड़ों की भाशा में बात करें तो सिंचित भूमि तो मात्र 10 से 15 प्रतिषत। बाकी बची भूमि वर्शा आधारित उसी में मनुश्य से लेकर पषु, पक्षी और जंगली जानवरों का भरण पोशण होना है। अर्थात् ”वर्तमान पीढ़ी के पास कुल औसत भूमि 25 नाली होने पर भी उसका उपयोग तो मात्र 10 नाली के बराबर ही है। अर्थात् ‘‘मात्र लगभग 2 बीघा।“ अब जरा सोचिये कि जब मैदान की सिंचित 2 बीघा जमीन से परिवार का भरण पोशण नही होता और आजीविका नही चलेगी तो आखिर आदमी गांव से जायेगा नहीं तो रूकेगा क्यों ?वास्तविकता यही है कि हमारे गांवों में जमीन की ”जन ग्रहण क्षमता“ समाप्त हो गई है। अब इस जनग्रहण क्षमता को कैसे बढ़ाया जाय यह विचार करना जरूरी है।

आंकड़ों में बात करें तो उत्तराखण्ड में कुल 89 लाख एक हजार कृशक परिवार है या वे जमीन, भूखण्ड़ो के मालिक हैं। उनमें 62 लाख 8000 परिवार सीमान्त श्रेणी के, 15 लाख और 9000 छोटे किसान, 10 लाख, 3 हजार मध्यम श्रेणी और मात्र 10 हजार किसान बड़ी श्रेणी के किसान है। सीमान्त श्रेणी के किसानों के पास तो औसत भूमि 20 नाली से कम, छोटे किसानों के पास 60 नाली से कम, मध्यम श्रेणी के किसानों के पास 150 नाली के लगभग और बड़े किसानो के पास तो हजारो नाली भूमि है। परन्तु जहाँ बड़े भू-स्वामी मात्र 4 प्रतिषत है वहां छोटे तथा सीमान्त किसान 88 प्रतिषत है और मध्यम श्रेणी के किसान मात्र 11 प्रतिषत परन्तु यह पड़ताल काफी नही है चैंकाने वाली बात तो यह है कि आंकड़े वर्शांे पुराने हैं। भू-स्वामित्व 2 से 3 पीढ़ी पहले के हैं और वर्तमान में इनके 4 से 6 गुना तक बंटवारा हो चुका है। गांवों में भूमि वन्दोवस्त और खसरा खतौनी का नवीनीकरण कितना नियमित है सभी जानते है। उसके ऊपर एक विडम्बना यह कि जो औसत भूमि भू-स्वामी या किसान के नाम पर है वह 3 से 10 जगहों पर टुकड़ों-टुकड़ों में बंटी है वह भी 0 से 10 कि0मी0 की दूरियों पर है। इसी के चलते पहले कुछ गांवों की छानियां या उपगांव वीरान हुये और अब मूलगांव भी वीरान होने लगे हैं।

हमारे विचारक और योजनाकार इसे पर्वतीय गांवों की समस्या मानते हैं जो बिल्कुल गलत है। पर्वतीय ग्रामीण तो अपनी आजीविका ओर रोजगार के लिये एक पीढ़ी को पीछे छोड़ कर पलायन कर गया और सुविधापरक जीवन यापन कर रहा है परन्तु पलायन की रफ्तार यही रही तो सामरिक दृश्टि से महत्वपूर्ण यह हिमालयी राज्य देष की सुरक्षा के लिये खतरा तो नहीं बनेगा ?निरन्तर बढ़ते पलायन से कही मैदानी क्षेत्रों में जनसंख्या का चहुमुखी दबाब तो नहीं बढ़ेगा। ऐसा दबाब जहां आर्थिक और सामाजिक असन्तुलन पैदा करेगा वही मैदानी जिलों की कृशि भूमि को भी निगल जायेगा। इस दबाब के प्रत्यक्ष प्रमाण तो उत्तराखण्ड बनने के 11 वर्शो के भीतर ही दिखने लगे है। एक ओर मैदानी जनपदों में अपराध, दुर्घटनाओं के आंकडे बढ़े है तो दूसरी ओर कृशि भूमि में फसलों की जगह बेतरतीब मकानों की फसले उगने लगी है, सुविधायों की जगह अव्यस्थाओं ने ले ली हैं। जिन बच्चों के भविश्य के लिये पहाड़ी मैदान की अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाने आये थे वही अब या अपहरण का षिकार होने लगे है या सड़क दुर्घटनाओं के षिकार या कुसंगत और लोभ लालच से चोरी डकैती लूटपाट के सहभागी या पीडि़त। बची खुची मैदानी जिलों की कृशि भूमि या तो मकानों की भेंट चढ़ गई है या विकास की नाम पर बनने वाली सड़के, नहरे, संस्थान और बाजारों के लिये विषालकाय इमारते और काम्प्लेक्स कुल मिला कर बिगत 11 वर्शों में साबित हो चुका है कि उत्तराखण्ड के आंकडे कुछ भी बोलते हों परन्तु एक ओर जहां पर्वतीय जनपदों में कृशि भूमि बंजर हुयी है वही दूसरी ओर मैदानी जनपदों में कृशि भूमि निरन्तर घटती जा रही है और कृशि उत्पादन और उत्पादकता भी निरन्तर घटती चली आ रही है।

सरकारी क्षेत्र में रोजगार के साधन सीमित है और निजी/प्राइवेट क्षेत्र में या तो अंसगढि़त है या नितान्त अस्थाई। अब सवाल उठता है कि रोेजगार का कृशि उत्पादन और कृशि भूमि से क्या सम्बन्ध है। इस सवाल का जवाब हिमाचल प्रदेष 1960 के दषक के अपनी स्थापना के समय दे चुका है। जब राज्य की स्थाई अर्थव्यवस्था के लिये सेब के बगानों के लिये वहां के मूल निवासियों को भूखण्ड या चक दिये गये थे जिससे वहां दीवारबन्दी से लेकर गड्डे खोदने पौधालयों की स्थापना और पौधारोपण से पहले चरण से ही रोजगार के अवसर पैदा हो गये थे और फिर उनकी रख रखाव, प्रबन्धन और उत्पादन के बाद विपरण से रोजगार के साधन बढ़ते चले गये जो निरन्तर बढ़ते ही जायेंगे हिमाचल में चकबन्दी के कारण जहां एक ओर फलोउद्यान के फल प्रसंस्करण (फ्रूटप्रोसेसिंग) उद्योग को जन्म दिया वहीं ब्रिकी उत्पादन और पुश्प उत्पादन ने षुरूवाती दौर से ही जन्म लेकर हिमाचल को खुषहाल बना दिया क्योंकि वहां पर पलायन एक सीमित स्तर तक ही रहा वहां मानव का पलायन वरसाती नदियों की बाढ़ की तरह मैदानों में नही बहा। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण उत्तराखण्ड से लगे पड़ोसी राज्य में होते हुये भी उत्तराखण्ड के लिये चिन्ता का विशय ही नही षर्मनाक और अफसोस जनक भी है। हिमाचल प्रदेष की मौलिक नीति निर्धारण के मूल सूत्र भूमि बन्दोवस्त या चकबन्दी के सिद्धान्त को उत्तराखण्ड 11 वर्शो बाद भी आत्मसात नही कर सका यह विचारणीय प्रष्न है। ऐसा नही है कि उत्तराखण्ड में पलायन को रोकने, रोजगार श्रृंजन या चकबन्दी पर कभी सवाल न खड़े हुये हांे। परन्तु ये मुद्दे या तो बहस या कतिपय लेख और समाचारो के टुकड़ो-टुकड़ो में ही सिमटते चले गये। वास्तविक मुद्दा आदमी और जमीन के सम्बन्धो का या तो हाषिये पर चला गया या हमारे नीतिकारों और जनप्रतिनिधियों की समझ में नही आ रहा। पलायन और रोजगार का मुद्दा तो ऐसा है जैसे पेड़ और जमीन का पेड़ की जड़ो के लिये जितनी जमीन मिलेगी वह उतना ही बड़ा होगा। उसी पेड़ को अगर गमले में लगा लिया तो वह बोनसाई बौना हो जायेगा उतना ही बढ़ेगा जितना गमले का साइज होगा। मेरा तो मानना है कि उत्तराखण्ड के निवासियों को गमले पर रोपकर बोनसाई या बौना बना दिया गया है। पहाड़ की जवानी का पलायन रोकना है तो उसे गमले की जैसी जगह के बजाय रूकने के लिये जमीन दे। जमीन/ भूमि हमें कही से मोबाइल, टी.वी., मोटरगाड़ी कुरकुरे या चिप्स की तरह आयातित नही करनी है वह यही है उसका प्रबन्धन करना है उसे ही भूमि बन्दोवस्त या चकबन्दी कहते हैं।

यह बात हमे 40 वर्शों से श्री गणेष सिंह गरीब समझाते आये है। आम जनता को ही नही हमारे छोटे से छोटे व्यक्ति से लेकर भारतवर्श राजनीति के षीर्श पुरूश श्री हेमवती नन्दन बहुगुणा, मुख्यमंत्री, श्री भुवन चन्द्र खण्डूरी, श्री भगत सिंह कोष्यारी सांसद, श्री हरीष रावत, श्री सतपाल महाराज, पूर्व मुख्यमंत्री श्री रमेष पोखरियाल निषंक जैसे षीर्श पुरूशों तक पहुंचाते रहे, समझाते रहे।

इस बारे में कई कमेटियां बनी सेमिनार भी हुये परन्तु बात जय की तस। यहाँ तक कि स्वेच्छिक चकबन्दी के नाम पर उत्तरकाषी जनपद के दो गांवो में सफल प्रयोग के बावजूद भी षासकीय मान्यता न मिलना नियोजन के नाम पर त्रासदी और विकास के नाम पर उदासीनता ही है। इससे साफतौर पर जाहिर होता है कि षासन स्तर पर उत्तराखण्ड में भूमि बन्दोंबस्त या चकबन्दी को या तो अनदेखा किया जा रहा है या हमारे योजनाकारों को इसके महत्व की जानकारी नहीं हैं या जनप्रतिनिधियों की सोच भूबन्दोबस्त/चकबन्दी और रोजगार तक नहीं पहुंच पाई है। यहां यह भी कहना उल्लेखनीय होगा कि सरकार जब कभी सामाजिक और आर्थिक मुद्दों की अनदेखी की जाती है तो जनता समाज ने उस मुद्दे की बागडोर अपने हाथ में ली और उसे मंजिल तक पहंुचाया। यद्यपि इस मुद्दे को कई सामाजिक संगठन और व्यक्ति समय-समय पर उठाते रहे है परन्तु बयोवृद्ध विचारक श्री गणेष सिंह गरीब इस मुद्दे को उठाते ही नही रहे बल्कि इसे जिन्दा रखने के साथ ही इसका इतिहास और भविश्य भी अपने में समेटे हुये है। श्री गरीब जी की व्यापक सोच और 40 वर्शो की निरन्तर प्रयास के कारण ही आज उत्तराखण्ड का जनमानस इस बुनियादी मुद्दे को समझने लगा है जिससें चकबन्दी और भूमिबन्दोवस्त की सोच उत्तराखण्ड के नियोजन की बुनियाद बनेगी। इसी उद्देष्य के साथ श्री गणेष सिंह गरीब, श्री कपिल डोभाल, श्री कँुवर सिंह भण्डारी तथा अन्य विचारको/लेखको के विचार और प्रयास इस पुस्तिका में संकलित किये गये हैं जिससे जनमानस को पलायन और रोजगार के स्थाई समाधान मिल सके।

                                                                                                                                              -सलाहार मंडल गरीब क्रांति अभियान उत्तराखंड 15-02-2012