4 - भूमि बन्दोवस्त, चकबंदी एवं स्वैच्छिक चकबन्दी


भूमि बन्दोवस्त एवं चकबंदी में कृषकों के लिये क्या-क्या अधिक हितकर है, अगर हम इस पर विचार करे तो इसके लिये पहले हमें यह जानकारी होना आवश्यक है कि उक्त दोनों पक्रियाओं में सामान्य तौर पर क्या-क्या होता है। अतः दोनों क्रियाओं के अंतर्गत क्या-क्या बातें समान रूप से होती है, पहले उन बातों पर नजर डाली जाये।

  • 1- भूमि की नापतौल-दोनों में की जाती है।

  • 2- शजरे (नक्शे) की दुरस्ती-दोनों में होती है।

  • 3- सामान्य वादो एवं विवादों का निस्तारण-दोनों में किया जाता है जैसे- मृतक का वयनामें का दाखिल खारिज।

  • 4- भू-अभिलेख व शजरा बनाना दोनों होता है।

  • 5- इसके अतिरिक्त अन्य भू-अभिलेख व शजरे में दुरस्ती के जो काम-भूमि-बन्दोबस्त में किये जाते हैं, चकबन्दी में भी किये जाते हैं।

  • उक्त समान कार्यों के अतिरिक्त चकबन्दी प्रक्रियाओं के अतंर्गत अन्य मुख्य महत्वपूर्ण कार्य और भी किये जाते हैं जो भूमि-बन्दोबस्त के अंतर्गत नहीं किये जा सकते हैः-
    • 1- चकबन्दी में समस्त कार्य गांव के कृषकों द्वारा चयनित चकबन्दी समिति के परामर्श से सहायक चकबन्दी अधिकारी करते हैं।

    • 2- चकबन्दी एक नियोजित समयबद्ध कार्यक्रम है।

    • 3- चकबन्दी में भूमि संबंधी समस्त त्रुटियों, अशुद्वियों एवं विवादों का निस्तारण अंतिम रूप से किया जाता है। इसमें एक मुख्य बात यह है कि जब किसी गांव में चकबन्दी क्रियायें प्रारम्भ हो जाती है, तो भूमि संबंधित कोई भी वाद किसी भी न्यायालय यहां तक कि अगर वह वाद हाईकोर्ट में भी क्यों न चल रहा हो स्थगित होे जाता है। पुनः वह वाद चकबन्दी में चलाया जा सकता है। जिसका अंतिम निर्णय चकबंदी में किया जाता है जो अन्य न्यायालयों को भी मान्य होता है।

    • 4- कोई भी भूमि संबंधी विवाद यदि वह चकबंदी के दौरान नहीं उठाया गया तो भविष्य में वह नहीं उठाया जा सकता है। स्पष्ट है कि चकबंदी के बाद कोई भी वाद-विवाद शेष नहीं रह जाता है।

    • 5- हर खातेदार के नाम पृथक से एक ही समस्त ग्राम में खाता रहेगा। भले ही पहले उसके नाम एक से अधिक खातों में दर्ज रहा हो, उसका अंश हर खाते से पृथक कर एक ही खाता बनाया जाता है। यह इसलिये किया जाता है कि चकबंदी खाते का बंटवारा अन्यथा अनिवार्य है ताकि एक व्यक्ति के नाम एक ही चक बने।

    • 6- चकबंदी क्रियाओं के अतिरिक्त एक अति महत्वपूर्ण कार्य ग्राम नियोजन का भी किया जाता है। इसमें ग्राम की आवश्यकतानुसार सार्वजनिक प्रयोजनों के लिये भूमि सुरक्षित की जाती है ताकि वर्तमान और भविष्य में भूमि उपलब्ध न होने के कारण गांव का विकास बाधित न हो। उदाहरण के लिये- आबादी विस्तार हेतु, हरिजन आबादी, खाद के गड्डे, प्राइमरी या उससे उच्चतर विद्यालयों, क्रीडास्थल, पंचायत घर, रास्ते, सिंचित क्षेत्रों में गूल, औषधालय आदि के लिये भूमि सुरक्षित की जाती है।

    अतः स्पष्ट है कि भूमि-बंदोबस्त से हर सूरत में चकबंदी अधिक लाभदायक है। यहां पर एक अहम बात बताना भी आवश्यक है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने 20-30 वर्ष पहले ही यह निर्णय ले लिया था कि प्रदेश में भूमि-बंदोबस्त न कर हर 20 वर्षों के बाद पुनः चकबंदी की जाये और आज उत्तर प्रदेश में कहीं-कहीं चकबन्दी का तीसरा चक्र चल रहा है।



    स्वैच्छिक चकबंदी


    उत्तराखण्ड सरकार प्रारम्भ से ही बड़ी दुविधा में प्रतीत होती है क्योंकि श्री नारायण दत्त तिवारी के मुख्यमंत्रीत्व काल में स्वैच्छिक चकबंदी पर कार्य करने की योजना बनी और भूमि सुधार परिषद का गठन किया गया। श्री पूरनसिंह डंगवाल उसके अध्यक्ष बनाये गये पर प्रगति शून्य रही। इनके बाद की सरकारों ने कभी चकबंदी (सामान्य) तो कभी स्वैच्छिक और कभी भूमि बंदोबस्त कराने की बात कही पर इसमें भी प्रगति शून्य ही रही। वर्तमान सरकार में मा. कृषिमंत्री श्री हरक सिंह रावत जी ने ऐलान किया है कि जो गांव स्वैच्छिक चकबंदी करेगा उसे एक करोड़ रूपया सरकार देगी। इस घोषणा को भी लगभग 6-7 माह हो गये हैं, पर अभी तक एक भी गांव आगे नहीं आया है। क्यों ? विचार करना आवश्यक है। अलग-अलग समय पर वर्षों से अलग अलग बातें क्यों कही जा रही है ? स्पष्ट है कि न तो शासन और न प्रशासन स्वयं यह समझ पा रहे हैं कि किया क्या जाना चाहिए और कैसे ? यह बात स्पष्ट तौर पर हमारे मुख्यसचिव श्री सुभाष कुमार जीे जो कि जब गढ़वाल मंडल के आयुक्त थे ने दैनिक जागरण 19.06.2004 के अनुसार कहा है कि ‘‘तमाम गोष्ठियों और चर्चाओं के बाद यह निर्विवाद हो गया है कि चकबंदी होनी चाहिए, लेकिन हो कैसे, समाधान सबके पास नहीं है।’’

    स्पष्ट हो गया है कि बात यहां पर आकर भटक रही है कि पहाड़ों पर चकबन्दी कैसे की जाये, इसका समाधान नहीं मिल रहा है। समाधान तो निकाला जा सकता है, यदि शासन प्रशासन चकबंदी के जानकार सेवानिवृत अधिकारियों व कर्मचारियों, चकबन्दी कार्यकर्ताओं एवं किसानों से परामर्श कर उनको भी अपने विचारों को रखने का अवसर दे।

    स्वैच्छिक चकबंदी उत्तरकाशी जनपद के ग्राम वीफ व खरसाली में की गई है। हम सभी जानते हैं कि उक्त दोनों ग्रामों के अतिरिक्त अन्य किसी भी ग्राम में कृषकों द्वारा स्वैच्छिक चकबंदी नहीं की गई है। फिर भी शासन स्वैच्छिक चकबंदी की ही बात कर रहा है। क्यों स्वैच्छिक चकबंदी नहीं हो रही है इसके मूल कारण को जानना आवश्यक है।

    स्वैच्छिक चकबंदी का जो अर्थ सामान्यतया निकाला जा रहा है कि या समझा जा रहा है, यह है कि खातेदार आपसी सहमति से खेतों का सटंवारा कर चक बनाये। बात बड़ी सहज लगती है। पर धरातल की स्थिति यह है कि अगर दो, तीन भाईयों के पास दो, तीन या तीन से अधिक स्थानों पर भूमि है (जो अधिकांशतया है) तो यह प्रक्रियाओं पहाड़ों पर है कि, उनमें बंटवारे की स्थिति में हर खेत के उतने ही टुकड़े किये जाते हैं, जितनों में बंटवारा होना है। ऐसी स्थिति में कैसे स्वैच्छिक चकबंदी हो सकती है। इस मानसिकता के कारण यह संभव नहीं हो पा रहा है।

    अगर आज से 20-30 साल पहले स्व0 राजेन्द्र सिंह रावत के विशेष प्रयासों से ग्राम बीफ व खरसाली गांवों में स्वैच्छिक चकबंदी हुई है तो उक्त ग्रामों के अतिरिक्त अन्य ग्रामों के कृषकों ने क्यों स्वैच्छिक चकबंदी नहीं अपनाई। अब जब कि उत्तराखण्ड सरकार ने स्वैच्छिक चकबंदी करने वाले ग्रामों को एक करोड़ रूपये तक देने की घोषणा की है क्यों काफी समय बीत जाने के उपरांत भी कोई ग्राम आगे आ रहा है।

    एक बात यहां पर स्पष्ट हो जानी वह है कि चाहे वह सामान्य चकबंदी हो या स्वैच्छिक चकबंदी इनका एक प्रारूप तैयार किया जाना चाहिए और भूमि संबंधी विशेषज्ञों के परामर्श से उसमें उचित संशोधन कर उसे एक अधिनियम के पारित कर तदनुसार नियमावली तैयार की जानी चाहिए। बिना अधिनियम बनाये न तो सामान्य चकबंदी और न स्वैच्छिक चकबंदी करना उचित है, क्योंकि बिना कानून बनाये यदि चकबंदी या स्वैच्छिक चकबंदी की जाती है तो उसमें वर्तमान भूमि संबंधी कानून आड़े आयेंगे। मुख्यरूप से जमीदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम और ऐसी चकबंदी किसी भी सक्षम न्यायालय में टिक नहीं पायेगी।

    जिलाधिकारियों को मात्र यह कहने से काम नहीं चलेगा कि वह हर ब्लाक में दो-दो गांव स्वैच्छिक चकबंदी के लिये तैयार करे। आखिर किस अधिनियम के अंतर्गत वह स्वैच्छिक चकबंदी करा सकते हैं। मात्र जी.ओ. से काम नहीं चलेगा क्योंकि जी.ओ. जमींदारी उन्नमूलन एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम या अन्य भूमि संबंधित अधिनियमों में दी गई व्यवस्थाओं को नजरन्दाज नहीं किया जा सकता है।

    स्वैच्छिक चकबंदी के बारे में एक और बात स्पष्ट करना चाहता हूं। उ.प्र. जोत चकबंदी अधिनियम व नियमों में स्वैच्छिक चकबंदी का समुचित प्रावधान किया गया है। इसके अंतर्गत उ.प्र. में हजारों गांवों में स्वैच्छिक चकबंदी की जा चुकी है और की जा रही है। यह स्वैच्छिक चकबंदी क्या है? आप सबको विदित है कि हमारे भू-अभिलेख व शजरे में कई प्रकार की अशुद्धियां, त्रृटियां हैं। गांव में कब्जे भी अन्य की भूमि पर है। वयनामें आदि भी हुये हैं, कहीं कहीं भूमि के विवाद भी न्यायालयों में चल रहे हैं। भूमि नई आबाद भी की गई है। बंटवारे भी मौके पर नहीं हुये हैं आदि-आदि क्या इन बातों के बिना निस्तारण किये आप स्वैच्छिक चकबंदी कर सकते हैं ? नहीं कर सकते हैं। तो स्पष्ट है कि पहले इन बातों का निस्तारण विधि-विधान से किया जाये तब जाकर आप स्वैच्छिक चकबंदी कर सकते हैं। भू अभिलेखों में या शजरे में आप किसी भी परिवर्तन को आपसी सहमति से नहीं कर सकते हैं यह कानूनन मान्य नहीं होगा। इसके लिये अधिनियम में नियुक्त अधिकारी ही आदेश पारित कर सकता है। स्पष्ट है कि मात्र खेतों के आपसी संटवारे से ही चक नहीं बन पायेंगे। इसके लिये भू अभिलेखों व शजरे में विधिनुसार ही आदेश पारित करने होंगे।

    उक्त सभी बातों का उ.प्र. जोत चकबंदी अधिनियम में व्यवस्था दी गई है। जब उक्त बातों का निस्तारण विधि विधान से हो जाता है तब सहायक चकबंदी अधिकारी गांव में चकबंदी समिति व अन्य कास्तकारों से विचार विमर्श कर सबसे पहले यहां प्रस्ताव रखता है कि आप अब शुद्ध अभिलेखों के अनुसार आपसी रजामंदी से चक निर्माण करें, उसमें हिसाब-किताब करने में चकबंदी स्टाफ उनकी मदद करता है और इस प्रकार विधि विधान से स्वैच्छिक चकबंदी उन ग्रामों में की जाती है।

    कहने का तात्पर्य यह है कि पहले इस संबंध में कोई अधिनियम बनाया जाना चाहिये। उ.प्र. जोत चकबंदी अधिनियम एक उत्तम व्यवस्था प्रदान करता है और इस संबंध में जानकार लोगों का कहना है कि इस अधिनियम से अच्छा अधिनियम अन्य किसी प्रान्त में नहीं है। हां हमें अगर अपना अधिनियम बनाना है तो उ.प्र. के अतिरिक्त अन्य प्रदेशों मुख्य रूप से हिमाचल प्रदेश के अधिनियम में जो बाते हमारे पहाड़ी क्षेत्र के लिये उपयुक्त है हमें लेनी चाहिए।

    एक बात सामान्य चकबंदी के संबंध में भी कहना चाहूंगा-वीफ व खरसाली स्वैच्छिक चकबंदी के ग्रामों का भू-अभिलेखों में समावेश अब तक नहीं हो पाया है कारण बिना अधिनियम के अंतर्गत यह कार्य किया गया था। अगर बिना अधिनियम बनाये स्वैच्छिक चकबंदी की जाती है तो कैसे भू अभिलेखों में उसका समावेश किया जायेगा कहा नहीं जा सकता है। इसके अतिरिक्त अगर आज भी कोई उक्त गांवों का व्यक्ति उस स्वैच्छिक चकबंदी के विरूद्ध किसी सक्षम न्यायालय में वाद दायर करता है तो बिना किसी तर्क-वितर्क के वह स्वैच्छिक चकबंदी निरस्त हो जायेगा क्योंकि वह किसी अधिनियम नियमों के अंतर्गत नहीं की गई है।

    इसके उलट उ.प्र. जोत चकबंदी अधिनियम के अंतर्गत जनपद देहरादून का एक गांव जिसे ‘सलान गांव’ कहते हैं और पूर्ण रूप से पहाड़ी सीढ़ीनुमा खेतों का गांव में चकबंदी सफलता से की गई है। परंतु र्दुभाग्य यह है कि इस गांव को अभी तक भी शासन प्रशासन ने संज्ञान नहीं लिया है अगर लिया होता तो इस गांव में चकबंदी 1973 में पूर्ण हो गई थी तब से उ.प्र. जोत चकबंदी अधिनियम के ही अंतर्गत हजारों गांवों की चकबंदी हो गई होती।

    यदि शासन प्रशासन वास्तव में पहाड़ों पर चकबंदी कराने का इच्छुक है तो इसके लिये मेरा एक सुझाव वहां तैनात किये जाने वाले अधिकारियों व कर्मचारियों के संबंध में है। पहाड़ों पर चकबंदी कार्य करना इतना आसान वहां की भौगोलिक रचना को देखते हुये नहीं है। एक वाकया जो कभी उ.प्र. के चकबंदी कमिशनर श्री आर्य जी ने कही थी का उल्लेख करना उचित समझता हूं। वह कही टूर पर जा रहे थें जून की तपती गरमी थी उन्होंने देखा कि कुछ 2-4 व्यक्ति उस तपती गरमी में खेतों में घूम रहे है, उन्होंने गाड़ी रूकवाई और पास जा रहे एक देहाती व्यक्ति से पूछा भाई ये कौन हैं जो इस तपती दोपहरी में खेतों में घूम रहे हैं? उस व्यक्ति का जबाव था ‘साहब यह या तो कोई पागल है या फिर चकबंदी करने वाले हैं।’ कहने का मतलब यह है कि पहाड़ों पर करमठ स्वस्थ नौजवान ही लेखपाल, चकबंदी कर्ता या सहायक चकबंदी अधिकारी नियुक्त किये जाने चाहिए, न कि जो चकबंदी स्टाफ इस समय उत्तराखण्ड के मैदानी क्षेत्र में कार्य कर रहा है कि नियुक्ति की जाये। मैदानी क्षेत्र में कार्य करने वाला चकबंदी का स्टाफ पहाड़ों पर कतई सफल नहीं होगा और न वह आना ही चाहेगा। इसके लिये अलग से कैडर बनाया जाना चाहिए और उन्हें समुचित सघन प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। क्योंकि किसी कार्य की सफलता उस कार्य को करने वालों पर अधिक निर्भर करता है।

    पहाड़ों पर चकबंदी करने से पूर्व चकबंदी कैसे की जायेगी उसमें कृषकों को कैसे अपने हितों का ध्यान रखना चाहिए का प्रचार-प्रसार वृहद रूप से किया जाना चाहिए। होता यह है कि जब चकबंदी हो गई होती तब किसान की समझ में वास्तविक रूप से आता है कि चकबंदी क्या है और उसमें कहां पर चूक हुई है। यह बात तब पता चलती है जब आप चकबंदी हुये गांव में जाये और कृषकों से बात करें। अतः प्रचार-प्रसार, गोष्ठियों का वृहद रूप से पहले होना कृषकों के हित में होता है। स्वैच्छिक चकबंदी नहीं सामान्य चकबंदी कराइये जो गांव स्वेच्छा से चक बनाना चाहे बनाये अन्यथा चकबंदी हर दशा में प्रदेश के कृषकों के लिये हित कर ही है। और यह सुगमता से पहले उन गांवों में प्रारम्भ की जा सकती है जहां से 50 प्रतिशत से अधिक लोग इससे सहमत हो।

                                                                                                                                    कुंवर सिंह भण्डारी
                                                                                                                                    से.नि. बन्दोबस्त अधिकरी (चकन्दी.)
                                                                                                                                    21/29 ई.सी.रोड, देहरादून
                                                                                                                                    मो.न. 9045802998