5 - उत्तराखंड में खेती के लिए चकबंदी का महत्व


डा. बलबीर सिंह रावत

जब मैं हाई स्कूल की छुट्टियों में घर आता था तो, जब जैसा कृषि मौसम रहा हो, माँ जी साथ गेहूं लवाई के लिए ,खेत जोतने के मौसम में हल्या ग्वठया काका के लिए खाना लेकर, अपने खेतों में पहुंच जाता था। काका खाना खाते थे, मैं हल चलाने लगता था खेत के अंतिम छोर से बल्द बौडाने की कला, कि निसुड़े के फल से बैल के पैर न जख्मी हो जांय , एक दुसरे के धक्के से बैलों की जोड़ी नीचे के खेंत में न गिर पड़े, मैंने प्रैक्टिकली,ग्वठया काका की शागिर्दी में हल चलाते हुए सीखी। हर एक दो घंटे में ही दूर, दूसरे खेत में जाने की मजबूरी से मेरे मन में प्रश्न उठता था, ‘‘हमारे सारे खेत एक ही जगह में क्यों नहीं हैं ? क्यों एक पत्थर के वाडे़े से आगे मेरे ताऊ जी, चाचा जी के खेत होते हैं?’’

बाद में पता चला की हमारे गांव की जमीन हर जगह एक सी उपजाऊ नहीं है ,यहां सारी में एक ओर जहां जाड़ौ में खूब धुप आती है वहाँ गिंवड़ेे हैं , सटयडे़े वहां हैं जहां मिट्टी गहरी और कंकड़ पत्थर बहुत छोटे और कम हैं और गर्मियों में अधिक धूप रहती है। जिन बरसाती फसलों को गुड़ाई- दंदेले की जरूरत होती है ,जैसे मंडुवा, वे खेत गाँव के नजदीक हैं , और जिनको कम या नही होती है वे ऊपर डाण्डे के खेतों में उगाये जाते हैं , जैसे, तोर, उड़द, गहथ इत्यादि। प्याज पानी के गधेरों के आसपास के खेतों में लगाये जाते हैं। यह देख कर समझने की जानकारी के बाद मेरी समझ में आया कि हर एक खेत के क्यों कई कई हिस्से हुए हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में हर जगह के खेत एक से उपजाऊ नहीं होते तो हर खेत के हिस्से बाँट करने होते हैं,ताकि हर बेटे को एक से उपजाऊ और फसल विशिष्ठ जगहों में खेत मिलें।

हमारे पूर्वजों ने कृषि भूमि प्रबंधन का जो स्थान विशिष्ठ सामाजिक रिवाज स्थापित किया था उसे आज की पीढ़ी इस लिए भूल गयी कि आबादी की बढ़ती दर से खेती की भूमि नहीं बढी , उलटे प्रति परिवार भूमि का क्षेत्रफल घटता गया, प्रति नाली जमीन से उपज भी कम होने लगी, साथ साथ शिक्षा के अवसर बढे लेकिन रोजगार के नहीं। इसलिए अन्यत्र, जहां कहीं भी रोजगार के अवसर मिलते दिखे वहीं पर्वतीय युवा वर्ग ने नौकरी पेशे से गुजर करने का मन बना लिया। आज अगर हम युवा वर्ग को अपने गाँव में ही खेती करने को कहते हैं तो व हमें अबूझ समझते हैं। क्योंकि स्वाभाविक है कि बेरोजगार युवाओं के लिए भावना नहीं, संभावना अधिक आकर्षक होती है। जो सही भी है, क्योंकि पारम्परिक खेती से परिवार के लिए साल भर का अनाज केवल कुछ ही जगहों में पैदा करना संभव है. और फिर छोटी सी नौकरी से जो आय होती है, उस से साल भर का भोजन, वस्त्र, बच्चों की पढ़ाई का सारा खर्च तो मिल ही जाता है। युवा वर्ग को आजाद देश में भोजन के अलावा अपने परिवार के विकास के लिए कई अन्य आावश्यक्ताओ की भी पूर्ति करनी चाहिए। यह उनका अधिकार है।

चकबंदी से बढ़े आकार के खेत एक जगह में मिलने से लाभकारी फसलें उगाने के खर्चे घटेंगे। क्यों की बढ़ा हुआ क्षेत्रफल पैमाने की आर्थिकी ( एकोनोमी ऑफ़ स्क्लेस का) का लाभ देगी। एक जोड़ी बैल, हल, व अन्य औजार तो हर छोटे बड़े किसान को रखने पड़ते हैं, चाहे जोत छोटी हो या बड़ी. पर्वतीय क्षेत्रों में मान लीजिये की एक जोड़ी बैल ५० नाली जमीन के लिए आर्थिक रूप से उचित हैं तो इस से कम नाली के खेत वाले को भी उतनी ही स्थिर लागत ( फिक्स्ड कौस्ट ) भुगतनी होती है। याने २५ नाली वाले की प्रतिकिलो उपज का स्थिर मूल्य भाग दुगुना हो जाता है तो प्रति किलो उपज लागत पर इसका असर पड़ता है। आर्थिक दृष्टि से चकबंदी के निम्न लाभ हैं -

  • 1- बड़ा आकार:- घर से खेत हल बैल लेकर, बीज, खाद एक ही बार बैल जोतने से समय और श्रम की बचत होती है तो कार्य गुणवत्ता सुधरती है।

  • 2- बढ़ीं सुविधाएं:- खेतों की मिट्टी की देखभाल, कंकर पत्थर बीनना, भीड़ों, दीवालों का रखरखाव, बरसाती पानी की निकासी,खेत में गोठ लगाने (संभव है तो) खाद-मोल डालने-मिलाने में सुविधा, खेत की जुताई, बुवाई, गुड़ाई, सिंचाई (अगर है तो ), लवाई में कम समय और अपेक्षकृत कम श्रम लगने के कारण गुवत्ता में बढ़ोतरी और साथ साथ खर्चों में कमी ।

  • 3- अधिक उपज-बढ़ती गुणवत्ता से उपज में बृद्धि और इस कारण प्रति किलो लागत में कमी। अगर नगदी फसलें लगाई हैं तो लाभांश में बढ़ोतरी।

  • 4- लाभ का आकर्षण:- चकबन्दी से नगदी फसलों को प्रचलित किया/अपनाया जा सकता है, नगदी फसलें लाभकारी होने के कारण व्यावसायिक खेती का प्रचलन बढ़ेगा तो पलायन कम होगा और पर्वतीय गांव फिर से आवाद हो सकते हैं।



कुछ सावधानिया: -


  • 1. पर्वतीय कृषि भूमि , पर्वत के ढाल, भौगोलिक दिशा , हवा के रुख रफ़्तार से प्रभावित होती है। एक गांव ़ की खेती के प्रकार, सिलड़ी सारि, जहां धूप कम रहती है, और जाड़ों की फसल देर से पकती है। तैल्वडि सारि जहां धुप अधिक रहती और मिट्टी की नमी जल्दी से कम होने लगती है, तो बरसाती फसलें अच्छी होती हैं,जैसे धान। डांडा कि खेती, जहाँ कम देखरेख के फसलें उगाई जाती हैं, जैसे दालें , तोर इत्यादि।

  • 2- नकदी फसलों, जैसे साक सब्जी, फल, जड़ी-बूटी, दालें , को उगाने के लिए एक ही किसान की चकबन्दित खेती कम हो सकती है, इसलिए यह अधिक सुविधाजनक होगा कि एक सी फसले उगाने के इच्छुक लोग एक ही प्रकार के सारियों को पसंद करें।

  • 3- व्यावसायिक खेती के लिए स्थान विशिष्ठ की भूस्तिथि, समुद्र तल से ऊंचाई, साल भर में बारिश की महीने वार मात्रा, औसत तापमान , हवाओं की रफ़्तार और दिशा इत्यादि प्राकृतिक परिस्तिथियों के प्रभाव से क्षेत्र में विशिष्ठ उपजें ही सर्वाधिक और डत्तम गुणवत्ता वाली डपज दे सकती है। इस लिए किसी अनुभवी विशेषज्ञ से, स्थानीय कृषि ज्ञान (या विज्ञान ) केंद्र से, कृषि/ बागवानी विभाग से परामर्श/प्रशिक्षण लेना अच्छा रहता है।

  • 4- सड़क से दूरी, पसंद की गयी फसलों का बाजारी भाव, फसल की ताजा रहने की आयु, लदान ढुलान के खर्चे भी आय को प्रभावित करते हैं।

चकबंदी का लाभ तभी है जब उसके बाद उत्तराखंड में पर्वतीय खेती पुनर्जीवित हो कर व्यावसायिक बन सके। केवल व्यावसायिक खेती ही पलायन को रोक सकने की ताकत रखती है। चकबंदी पलायन रोकने का अंतिम नहीं प्रारम्भिक कदम है। अगर पहिला कदम सफलता से उठाया जाता है तो अंतिम कदम तक, प्रयासशील रहना होगा कि पर्वतीय खेती से पर्वत फिर से गुंजायमान हो जाँय। इस लिए मेरा सुझाव है इस चकबंदी अभियान का दायरा बढ़ा कर , व्यावसाियक खेती को बढाने के लिए सलाहकारों का एक पैनल भी खोजना और उपलब्ध कराना चाहिए , तभी चकबंदी अभियान की उद्द्येश्य पूर्ति होगी। जय हिन्द। जय उत्तराखंड।

                                                                                             (अवकास प्राप्त प्रमुख वैज्ञानिक - भा. कृ. अ. सँ. एवं सलाहकार गरीब क्रांति अभियान उत्तराखंड)